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Varanasi News: मैं भारत में शायद अकेला शख्स हूँ जो छायावाद का मौखिक इतिहास जानता है: प्रो. रामनारायण

लेखन : कु रोशनी उर्फ़ धीरा, शोध छात्रा, हिन्दी विभाग बीएचयू,

नया सवेरा नेटवर्क

प्रो. राजकुमार, समन्वयक, अंतर सांस्कृतिक अध्ययन केन्द्र, प्रो. नीरज खरे, समन्वयक, मुंशी प्रेमचन्द स्मारक एवं शोध संस्थान लमही तथा प्रो. संजय कुमार, समन्वयक, मालवीय मूल्य अनुशीलन केन्द्र के संयुक्त संयोजकत्व में और मालवीय मूल्य अनुशीलन केन्द्र, अंतर सांस्कृतिक अध्ययन केन्द्र बीएचयू एवं मुंशी प्रेमचन्द स्मारक एवं शोध संस्थान लमही के संयुक्त तत्वावधान में दिनांक 28/11/2025 को ‘छायावाद और मुकुटधर पाण्डेय’ विषयक विशेष व्याख्यान का आयोजन मालवीय मूल्य अनुशीलन केन्द्र बीएचयू में किया गया। इस विशेष व्याख्यान के विशिष्ट अतिथि हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. रामनारायण पटेल जी थे। प्रो. राजकुमार, प्रो. नीरज खरे और प्रो. संजय कुमार ने ‘प्रेमचंद और हमारा समाज’ पुस्तक, उत्तरीय तथा पुष्प गुच्छ देकर प्रो. रामनारायण जी को सम्मानित किया गया। 

स्वागत वक्तव्य देते हुए प्रो. नीरज खरे ने कहा कि हिन्दी कविता में छायावाद के पूर्व और छायावाद के बाद, मूलतः यह समय स्वाधीनता आंदोलन का भी रहा है। अक्सर छायावाद पर बातचीत चार स्तंभों प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी पर आकर रुक जाता है। छायावाद के संस्थापक मुकुटधरा पाण्डेय को भी कहीं न कहीं विस्मृत और उपेक्षित कर दिया जाता है। उनकी महत्ता के प्रतिपादन हेतु यह संगोष्ठी रखी गई है।

इस विषय पर अपनी बात रखते हुए प्रो. रामनारायण पटेल कहते हैं मैं मूलतः विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ और बचपन से मेरी रुचि संगीत और नाटक में रही है। उन्होंने मुकुटधर पाण्डेय जी और हबीब तनवीर जी के सान्निध्य में भी रामनारायण जी ने काम किया। पहले मैं छायावाद से इलाहाबाद और अहमदाबाद समझता था। वही व्यक्ति, वही झुंड, वही समूह। हमने मुकुटधर जी के साथ कई हरकतें की हैं जैसे एक नाती अपने नाना से करता है। प्रसाद जी की एक पंक्ति बीती विभावरी जाग री का जब मैंने अर्थ पूछा तो उन्होंने कहा यही तो छायावाद है। उन्होंने बताया कि मैं छायावाद का मौखिक इतिहास मैं जान रहा हूँ। शायद भारत में मैं अकेला व्यक्ति हूँ जो छायावाद का मौखिक इतिहास जानता है। छायावाद सचमुच में एक सीमा रेखा है, यह एक ऐसी काव्यधारा है जो भक्तिकाल के बाद पहली बार काव्य, कला, दर्शन, इतिहास, कल्पना को लेकर चला। जीवन, जगत और प्रकृति में एक सामंजस्य है ऐसा भक्तिकाल में भी नहीं था। छायावाद को समझने का मतलब है संस्कृत के कालिदास को समझना। छायावाद को समझने का मतलब है भारत की परम्परा को समझना। समय भले ही इसका कम रहा हो लेकिन इतने कम समय में इतनी प्रवृत्ति को लेकर चलने वाली यह धारा अपने आप में अकेली है। मुकटधर गांव के गंवई व्यक्ति जो रवींद्रनाथ टैगोर को पढ़ रहा है, शेली, किट्स और वायरन को पढ़ रहा है। आचार्य शुक्ल ने कहा था स्वछंदतावाद का पहला प्रभाव श्रीधर पाठक में। दिखाई देता है। इसके पूर्व हमें यह प्रभाव ठाकुर जगमोहन सिंह की रचनाओं में देखने को मिलता है। यहाँ भारतेंदु मंडल में दस कवि तो वहां छत्तीसगढ़ में जगमोहन मंडल में भी आठ दस लोग थे। इनकी रचनाओं की एक विशेषता है श्यामा स्वप्न, श्यामा हर रचना के नाम है जो गांव की कोई सुंदर सी स्त्री थी, वे उनसे प्रेम करते थे, मर्यादा रखने के लिए लक्ष्मी का नाम श्यामा रख दिया था। यह स्वच्छंदतावाद के साथ छायावाद का जुड़ाव रहा। वहां प्रकृति के भाव थे, उसकी स्वच्छंदता थी। छायावाद का भाव उदय द्विवेदी युग के मध्य में या उत्तरार्द्ध में ही हो गया था। 1910 में शुरुवात हो जाती है, 1920 में हितकारिणी नाम से मुकुट जी की इस रचना में उन्हीं के द्वारा पहली बार छायावाद शब्द का प्रयोग किया।

भाषा है वह छायावाद

उसका कहीं न है अनुवाद।

वे छियानवे साल तक जीवित थे और उनकी चेतना उनके साथ थी। उनकी याददाश्त भी बहुत तेज थी।

1909 में उनकी एक रचना प्रकाशित हुई, उसकी पंक्तियां तप्त स्वेद बूंदों में ढल जा। मैथिलीशरण गुप्त के साथ लोचन पाण्डेय, मुकुटधर पाण्डेय इन लोगों का आपसी सम्बन्ध था। लोचन पाण्डेय और मुकुटधर पाण्डेय में मित्रवत सम्बन्ध था। छायावाद के नाम की उपयुक्तता पर बात करते हुए वे बताते हैं साहित्य इतिहास में नामकरण की परम्परा चली आ रही थी। आचार्य शुक्ल जी ने उसके नाम और प्रवृत्ति की तरफ संकेत किया। छायावाद आया कहां से अंग्रेज़ी के स्वछंदतावाद का अनुकरण, ईसाई संतों के फेंट समाटा (छाया भास)। हिंदी प्रदीप के मुकुट जी की रचनाएँ छपा करती थी। ये दोनों मित्र अंग्रेज़ी के साथ उड़िया और बंगला भाषा भी बहुत अच्छे से जानते थे। शुक्ल जी ने कहा कि अंग्रेज़ी के रोमांटिसिज्म से, बांग्ला अनुकरण से आया इस बात से मुकुट जी सहमत थे लेकिन ईसाई के फेंट समाटा से सहमत नहीं थे। राजा चक्रधर सिंह रायगढ़ नरेश संगीत प्रेमी थे, वहां महावीर प्रसाद द्विवेदी और लोचन जी भी उनके यहाँ जाया करते थे। प्रसाद जी को देखने रायगढ़ से मुकुटधर पाण्डेय आए हैं इस बात को सुनकर प्रसाद जी खाट से उठकर बैठ गए और हाथ जोड़े हुए आँख से आंसू झरने लगा उन्होंने कहा कि प्रणाम तो मुझे कहना चाहिए छायावाद के प्रवर्तक तो आप हैं। यह भाव वही लोग जानते होंगे। प्रसाद जी छायावाद का सीधा सम्बन्ध भारतीय काव्य प्रवृत्ति, भारतीय परम्परा से जोड़ते हुए मोती के लावण्य को छाया कहा। प्रसाद शुक्ल जी के द्वारा छायावाद की बताई गई उत्पत्ति से सहमत नहीं थे। पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी भी राजनंद गांव से थे, उनको महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने सरस्वती के संपादक का दायित्व पुन्नालाल जी को सौंप दिया। लोचन प्रसाद पाण्डेय ग्यारह छद्म नाम से लिखते थे उनमें से एक नाम ताराचंद था। महावीर प्रसाद जी ने छायावाद का नाम अध्यात्मवाद सुझाया और पुन्नालाल जी ने भक्तिवाद। रवीन्द्रनाथ जी के गीतों में एक अध्यास शब्द आता है इसी के नाम पर उसका नामकरण उन्होंने छायावाद का नामकरण किया। राजाराम मोहन राय, दयानंद सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस का नव वेदांत इन सबके बारे में मुकुट जी ने पढ़ा था। महावीर प्रसाद द्विवेदी जी को जब पता चला कि छद्म नाम से इन लोगों ने कालिदास की निरंक

छायावाद दो विश्वयुद्धों के बीच की काव्य प्रवृत्ति है। यहाँ हमें समझ लेना चाहिए कि किसी भी काव्य प्रवृत्ति का न तो अचानक जन्म ही होता है और न ही अवसान। 

1910 के आस पास इसका बीज वपन हो चुका था। इंदु में प्रसाद जी की रचना ‘खोलो तो आँख’ वाली कविता छपी थी। प्रसाद जैसे कवि का जन्म युगों बाद ही होता है। उनकी एक रचना है ‘कुररी के प्रति’ यह एक पक्षी है। यह छायावाद की पहली रचना है। कार्तिक माह में महानदी के आस पास ये प्रवासी पक्षी आते हैं। जिनके नाखून लंबे लंबे, इसकी चर्चा कालिदास ने भी की है। कुररवा। रात भर वे कुरेरते रहते हैं प्रसाद को लगा कि यह वेदना है। उस वेदना से वे बातचीत करते हैं, वे प्रकृति से सीधा संवाद करते हैं।

बता मुझे हे विहग विदेशी 

अपने मन की बात। इसका संबंध मैं क्रौंच से करता हूँ। क्रौंच भी कुररी पक्षी की तरह है। इस कुररी से एक युग की शुरुवात हो जाती है। एक मैं क्रोध मिश्रित वेदना है, एक मैं केवल वेदना है। बाद के राजा लोग पक्षी को मारने लगे थे पहले के राजा लोग कुररी को खाते थे तब मुकुट जी कहते थे ये दूसरे देश से आए साईबेरियाई पक्षी देवता के समान हैं। इन्हें मारने से मना करते थे। यह प्रवृत्ति हम पंत में भी देखते हैं। जड़ और चेतन का सामंजस्य।

प्रथम रश्मि का आना रंगिणि तूने कैसे पहचाना 

कहां कहां हे बाल विहंगिनी पाया तूने यह गाना।

स्वछंदतावाद की अंतिम अवस्था है जड़ और चेतन का समरस ही जाना है।

कामायनी की पंक्तियां, 

ऊपर हिम था नीचे जल था, एक सघन था एक तरल

एक तत्व की ही प्रधानता इसे कहो जड़ या चेतन।

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नामवर मुकुटधर जी का बहुत सम्मान करते थे वे उनसे मिलने रायगढ़ दो बार गए थे, उसके बाद ही उन्होंने छायावाद किताब लिखी। प्रो. रामनारायण पाण्डेय जी ने ‘छायावाद और मुकुटधर पाण्डेय’ नाम से किताब लिखी है। प्रसाद जी निश्चित रूप से रवींद्रनाथ जी से परिचित थे। जब 1913 में जब रविंद्रनाथ जी को नोबल पुरस्कार मिलता है तब रहस्यवाद की ओर पूरा भारत झुक गया था। फकीर मोहन सेनापति यदि उड़िया के रचनाकार नहीं होते तो हिन्दी में प्रेमचन्द भी नहीं होते, ऐसा नामवर जी भी कहते हैं। किसान पर जैसा फ़कीर मोहन सेनापति ने लिखा है, प्रेमचंद उनके ऋणी थे।

उड़िया में छायावाद का समय सगुज युग था। श्री शारदा में मुकुट जी का चार लेख माला छपा। उसमें छायावाद दूसरे नंबर का लेख है। इसमें उन्होंने साफ साफ लिखा है कि जो बांग्ला साहित्य को भली भांति जानता है, मिस्टिसिज्म को जानता है वह छायावाद को जान सकता था। रहस्यवाद शब्द का पहली बार प्रयोग हरिऔध जी ने कलकत्ता अधिवेशन में पहली बार किया था। उनके कहने का सीधा मतलब था जब मैंने छायावाद के लिए मिस्टिसिज्म शब्द लिया तब कोई रहस्यवादिता ढूंढता भी नहीं था। इसमें वे छायाभाषिता की प्रवृत्ति, भावव्यंजकता की प्रवृत्ति के चलते छायावाद नाम दिया। आचार्य शुक्ल जी ने लिखा है एक ही धारा में एक नया चीज लेकर चल रहे थे। नामकरण की उपयुक्तता के संदर्भ में भी मुकुट जी बहुत खिन्न रहे थे। लाल भगवानदिन ने इसे छोकरावाद, नव सिखियावाद कहा। ऐसा ही कुछ कुछ महावीर प्रसाद द्विवेदी जी भी कहा करते थे। मुकुट जी विक्षिप्त से हो गए 1927-1928 तक आते आते। एक डर का भाव पैदा हो गया। ऐसा क्यों हुआ यह तो वही बताएंगे। कई ऐसी रचनाएँ भी छपी। मायावद नाम से एक पत्रिका भी छपी। गांव का आदमी बड़ा सहज होता है जिसे थोड़ा सा भी घुड़क दो तो सच को। सच भी नहीं कहता। सूर की गोपियाँ कहती हैं हम तो गाँव की हैं, सहज हैं, भोरि हैं, वे शहर की कुटिलता नहीं जानते। 1927-28 के बाद वे उस रिदम से नहीं लिख पाते थे। यदि परिमाण और रचना दृष्टि से देखा जाय तो निश्चित ही प्रसाद छायावाद के प्रवर्तक हैं लेकिन शुरुवाती दौर में मुकुट जी की कविताओं का, रचनाओं का अध्ययन करेंगे तो उनको भी मानना पड़ेगा, आप उनको भी छायावाद का प्रवर्तक मान सकते हैं। आचार्य नन्ददुलारे वाजपेई ने छायावाद पर बड़ी कृपा की है। लोचन प्रसाद पाण्डेय की रचनाओं के खोज में हैं रामनारायण जी। कुछ पत्रिकाएं, हितकारिणी, सुधा, प्रभा की इन्हें आवश्यकता है। मुकुट जी की रचनाओं में सहजता, तरलता के साथ गंभीरता भी है। छायावाद यथार्थ में भावराज्य की वस्तु है ऐसा मुकुटधर पाण्डेय जी ने कहा था।महानदी तट पर हीराकुंड बांध बना है। इसी नदी के तट से एक युग की शुरुवात होती है। धन्यवाद ज्ञापन प्रो. संजय कुमार जी ने किया। कार्यक्रम में डॉ. मानसी रस्तोगी, डॉ. लहरी राम मीणा, डॉ. महेन्द्र प्रसाद कुशवाहा, रामनारायण की धर्मपत्नी लता पटेल, उनके बेटे रवि पटेल, डॉ. संजीव कुमार सहित विद्यार्थियों और शोधार्थियों की उपस्थिति रही।


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